प्रयागराज के महाकुंभ की भीड़ में सूरज की किरणें गंगा के जल पर नाच रही थीं, पर अशोक की आँखों में केवल अँधेरा था। उसकी पत्नी मीनाक्षी का हाथ अचानक उसकी मुट्ठी से फिसल गया था—एक ऐसी फिसलन जिसने उसकी साँसों को जमा दिया। "मीनाक्षी! मीनाक्षी!" उसका स्वर भीड़ में डूबता चला गया। लाखों लोगों के इस सैलाब में एक चेहरा ढूँढना सूई की टोकरी में हाथ डालने जैसा था।
दिल्ली के त्रिलोकपुरी में रहने वाला अशोक, एमसीडी का सफाई कर्मचारी, अपनी पत्नी को लेकर इस उम्मीद से महाकुंभ आया था कि यह यात्रा उनके बिगड़ते रिश्ते को सुधार देगी। पर अब वह खुद को एक ऐसे नाटक का खलनायक महसूस कर रहा था, जिसकी पटकथा उसने ही लिखी थी।
**फोन की घंटी ने दिल्ली में उनके बेटे अश्विनी की नींद तोड़ दी।**
"पिताजी? क्या हुआ? आप रो क्यों रहे हैं?"
"तुम्हारी माँ... वो गुम हो गई है। पिछले 15 घंटे से ढूँढ रहा हूँ..." अशोक का स्वर टूट रहा था। उसकी आवाज़ में डर था, पर शायद अपराधबोध का वह भार नहीं, जो उसके सीने पर पत्थर बन चुका था।
अश्विनी और उसका छोटा भाई आदर्श, अपने मामा प्रवेश के साथ अगली ट्रेन से प्रयागराज पहुँचे। स्टेशन पर उतरते ही उन्होंने भीड़ में माँ का फोटो दिखाना शुरू कर दिया। "क्या आपने इस महिला को देखा है?" हर जवाब निराशा लाता। रात होते-होते वे झूसी थाने पहुँचे, जहाँ एक कॉन्स्टेबल ने उन्हें पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट के बारे में बताया।
**केवट बस्ती के एक सस्ते लॉज का कमरा नंबर 12।**
सुबह की पहली किरण ने जब खून से सनी दीवारों पर रोशनी डाली, तो मोहन नाम के किराएदार की चीख़ ने पूरी बस्ती को हिला दिया। मीनाक्षी का शव धारदार हथियार से वार करके छलनी किया गया था। पुलिस को जब उसकी पहचान का पता चला, तो सीसीटीवी फुटेज ने एक हैरतअंगेज सच उजागर किया—रात 1:37 बजे, अशोक उसी लॉज से बाहर निकलता दिखाई दिया, उसके कपड़ों पर धब्बे थे... शायद खून के।
**पूछताछ कक्ष में अशोक का सिर नीचा था।**
"क्यों किया आपने ये?" इंस्पेक्टर उपेंद्र की आवाज़ गूँजी।
"वो... वो मुझे छोड़ने वाली थी। उसने दिल्ली की उस औरत के बारे में जान लिया था..." अशोक की आँखों में आँसू नहीं, खालीपन था। उसने बताया कि कैसे उसने कुंभ के भीड़भाड़ का फायदा उठाकर मीनाक्षी को लॉज ले जाया, और फिर एक झूठी गुमशुदगी की कहानी गढ़ी।
**न्यायालय के बाहर अश्विनी और आदर्श चुप थे।**
उनकी यादों में माँ का वह आखिरी हँसता चेहरा था, जो दिल्ली से प्रयागराज जाते समय ट्रेन की खिड़की से बाहर देख रहा था। अशोक का चेहरा अब एक शैतान की तरह उभरता, जिसने न सिर्फ़ माँ को, बल्कि उनके विश्वास को भी मार डाला था।
महाकुंभ का मेला समाप्त हुआ, पर अशोक के लिए यह स्नान जीवनभर के पापों का प्रायश्चित बन गया। जेल की सलाखों के पीछे बैठा वह अक्सर सोचता—क्या वाकई वह औरत उसके लिए इतनी महत्वपूर्ण थी? या सिर्फ़ एक झूठी जिद्द थी, जिसने तीन बच्चों की माँ को बलि चढ़ा दिया...
प्रेम और प्रवंचना के इस काले सागर में, कुंभ का पवित्र जल भी अशोक के हाथों के खून को नहीं धो सका। और जब सच सामने आया, तो वह सिर्फ़ एक हत्यारा नहीं, बल्कि एक पिता, एक पति और इंसानियत के खिलाफ़ गुनहगार बन गया...