(भावनाओं, विसंगतियों, और सत्ता के खेल का दस्तावेज़)
कब इंसान अपने हालातों से समझौता करके अंधेरे रास्तों पर चल पड़ता है? क्यों कुछ फैसले उसे ऐसी गहरी खाई में धकेल देते हैं, जहाँ से लौटना नामुमकिन होता है? कैसे एक मामूली रिश्ता, एक अधूरी चाहत और कुछ गलत फैसले मिलकर एक खौफनाक हत्या की साजिश को जन्म देते हैं?
**पृष्ठभूमि: प्रतिष्ठा के पीछे छिपा अंधेरा**
4 दिसंबर, 1973 की सुबह। दिल्ली के चाँदनी चौक के पास डिफेंस कॉलोनी में हवा सर्द और सन्नाटे से भरी थी। डॉ. एन.एस. जैन, जो राष्ट्रपति के निजी नेत्र चिकित्सक थे, अपनी पत्नी विद्या के साथ बहन के घर जाने की तैयारी कर रहे थे। उनकी प्रतिष्ठा और सामाजिक हैसियत के बावजूद, उनके जीवन में एक गहरा रहस्य दबा हुआ था — चंद्रेश शर्मा, उनकी पूर्व निजी सचिव, जिससे उनका भावनात्मक रिश्ता विद्या के लिए एक खुला घाव बन चुका था। यही रिश्ता आगे चलकर एक खूनी साजिश का केंद्र बना।
**वह क्षण जब जीवन अस्त-व्यस्त हो गया**
गाड़ी का दरवाज़ा खोलते ही डॉ. जैन ने एक धातु की खनखनाहट सुनी। विद्या की ओर मुड़े तो दृश्य ने उनकी साँसें थाम दीं — दो अनजान चेहरों ने उनकी पत्नी को 15 बार चाकू से वार कर दिया था! विद्या का सफेद साड़ी का वस्त्र अब लाल हो चुका था। उनकी आँखों में भय और विश्वासघात का मिश्रण था, मानो वे पूछ रही हों, "यह क्यों?" हमलावरों ने पिस्तौल दिखाकर भागते समय ज़मीन पर गिरी विद्या की चूड़ियों को कुचल दिया। यह दृश्य डॉ. जैन के मन में जीवनभर के लिए एक सदमे के रूप में अंकित हो गया।
**जाँच: प्रेम, प्रतिशोध और पैसे का जाल**
पुलिस ने डॉ. जैन के क्लिनिक से जुड़े सुराग़ों की तह तक पहुँचने की कोशिश की। चंद्रेश शर्मा का नाम सामने आया, जिसे विद्या के शक के कारण नौकरी से निकाला गया था। मगर डॉ. जैन से उसका रिश्ता अब भी गहरा था। चंद्रेश के घर से मिली कश्मीर की यादगार तस्वीरें इस बात का सबूत थीं कि वह डॉक्टर के जीवन में केवल एक "सहयोगी" नहीं थी। पुलिस को उसके एक रहस्यमय दोस्त राकेश कौशिक का भी पता चला, जिसने हरियाणा के एक गाँव से दो मजदूरों — करतार सिंह और उजागर सिंह — को ₹5,000 के एडवांस में फँसाकर हत्या के लिए भाड़े पर रखा था। यह रकम उनकी गरीबी के लिए एक जाल साबित हुई।
**फाँसी के फंदे और अधूरा इंसाफ**
कोर्ट में सबूतों के आधार पर करतार और उजागर को फाँसी की सज़ा सुनाई गई, जबकि डॉ. जैन और चंद्रेश को उम्रकैद। फाँसी वाले दिन, करतार ने नए कपड़ों में लिपटे अपने शरीर को झटकते हुए चिल्लाया, "मैं निर्दोष हूँ! मुझे बस पैसों के लिए फँसाया गया!" उसकी आवाज़ में न्याय व्यवस्था के प्रति गुस्सा और निराशा थी। वहीं उजागर ख़ामोश था, मानो उसने अपनी नियति स्वीकार कर ली हो। फंदे पर झूलते ही दोनों की साँसें रुक गईं, लेकिन उनकी मौत ने एक सवाल छोड़ दिया: क्या यह सज़ा सच में उनके अपराध की थी, या गरीबी और कानूनी सहारे के अभाव की?
**सत्ता का दोगलापन: 16 साल बाद रिहाई**
16 वर्षों के बाद, डॉ. जैन और चंद्रेश जेल से रिहा हो गए। समाज ने देखा कि कैसे पैसे और ताकत ने न्याय के तराजू को अपने पक्ष में झुका दिया। करतार और उजागर के परिवारों ने आजीवन गरीबी में संघर्ष किया, जबकि डॉ. जैन ने धीरे-धीरे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को फिर से बनाना शुरू कर दिया। चंद्रेश कहीं गुमनामी में खो गई, मगर उसके चेहरे पर हमेशा के लिए एक सवाल अंकित था: "क्या प्रेम की कीमत किसी की जान से भी अधिक होती है?"
**कहानी का सार: वह चीखें जो आज भी गूँजती हैं**
यह घटना केवल एक हत्या नहीं, बल्कि उस व्यवस्था का आईना है जहाँ गरीबी और सत्ता न्याय को मुट्ठी में बाँध लेती हैं। करतार की चीखें और उजागर की ख़ामोशी आज भी हर उस इंसान को प्रश्न करती हैं जो "ताकतवर" और "कमज़ोर" के बीच के फर्क को नज़रअंदाज़ करता है। विद्या जैन की मौत ने एक परिवार तबाह किया, लेकिन उनके हत्यारों की रिहाई ने समाज के विश्वास को भी मार डाला। यह कहानी हमें याद दिलाती है कि कानून की किताबें अक्सर पैसे और रुतबे के हाथों में खिलौना बन जाती हैं।