राजपूत विदेशी आक्रमणकारियों के वंशज है। 5वीं और 6वीं शताब्दी में, भारत पर हूण, शक, और पल्लव जैसे विदेशी आक्रमणकारियों ने आक्रमण किया। इन आक्रमणकारियों ने कुछ भारतीय महिलाओं से शादी की, और उनके वंशज राजपूत बन गए। राजपूत शक-कुषाण तथा हूण आदि विदेशी जातियों की संतान है। इस लेख में, हम राजपूत के जीवन और उपलब्धियों पर चर्चा करेंगे। हम उनके शासनकाल की प्रमुख घटनाओं, उनकी विजयों, उनके सांस्कृतिक योगदानों और उनके उत्तराधिकार पर प्रकाश डालेंगे।
हूण एक प्राचीन असभ्य वंश था जो मध्य एशिया से उत्पन्न हुआ था। उनका निवास स्थान पूर्वी चीन के पास था। हूण प्रायः मंगोल जाति से सम्बन्धित थे और सिथियनों की एक उप-शाखा थीं। दूसरी शताब्दी ई0पू0 में, आजीविका के साधनों की खोज में, हूण अपने मूल निवास स्थान से निकलकर दो शाखाओं में विभाजित हुए - पहली शाखा ने वोल्गा नदी के माध्यम से यूरोप में प्रवेश किया और दूसरी शाखा आक्सस की घाटी में बस गई। भारत में आए हूणों का संबंध इसी दूसरी शाखा से था।
आक्सस के हूणों ने ईरान में तत्कालीन राजा फिरोज को पराजित करने के बाद काबुल में कुषाण-राज्य को नष्ट किया। काबुल को गुजरते हुए पश्चिमी दर्रां को पार करते हुए, हूणों ने भारत पर आक्रमण किया। भारत पर आक्रमण करने वाले हूणों को ‘एप्थेलिटीज’ या ‘सफेद हूण’ कहा जाता है।
"गुप्त सम्राटीय काल के उत्कृष्ट क्षण में, पांचवीं सदी ई0 में, उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र से हूण आक्रमण शुरू कर दिया। हूणों ने पहली बार 458 ई0 में भारत पर हमला किया। उस समय गुप्त साम्राज्य (उत्तरी भारत) के शासक स्कंदगुप्त थे। स्कंदगुप्त ने हूणों को पराजित किया और उन्हें वापस भगाने के लिए मजबूर किया। इतिहासकारों के अनुसार, स्कंदगुप्त को एशिया या यूरोप का पहला ऐसा शासक माना जाता है, जिन्होंने हूणों को पराजित किया। 466-67 ई0 में, तोरमाण के नेतृत्व में हूण दोबारा भारत पर आक्रमण किया। इस बार भी, स्कंदगुप्त ने हूणों को दबाया। 484 ई0 में, हूण भारत पर पूरी ताकत के साथ हमला किया। स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारी कमजोर थे और उनमें हूणों के सामने लड़ने की क्षमता नहीं थी। इसलिए, वे भारत के कुछ हिस्सों पर हूणों के अधीन कर दिए। गुप्त साम्राज्य का अंत या पांचवीं शताब्दी के आरम्भ में हो गया था। विदेशी हूणों के आक्रमण और आंतरिक विघटन कुछ मुख्य कारण थे जो गुप्त साम्राज्य का अंत कर दिया।"विदेशों से बर्बर हूणों के होने वाले आक्रमण तथा आन्तरिक विघटन गुप्त साम्राज्य के पतन के मुख्य कारण थे
तोरमाण :भारत में राजपूतों का संस्थापक :
भारतीय क्षेत्र में हूणों का प्रवेश तोरमाण के नेतृत्व में हुआ। कल्हण ने अपनी 'राजतरंगिणी' में हूण शासक के रूप में तोरमाण और मिहिरकुल का उल्लेख किया है। इन दोनों से संबंधित, अनेक सिक्के तथा शिलालेख भी प्राप्त हुए हैं।
तोरमाण ने पांचवीं शताब्दी के अंतिम दशकों छठी शताब्दी के आरंभ में भारत के कुछ भागों पर आधिपत्य स्थापित कर हूण सत्ता की स्थापना की। पंजाब पर विजय के बाद उसने पश्चिमी भारत के प्रदेशों पर विजय प्राप्त की।
सिक्कों तथा शिलालेखों से ज्ञात होता है कि राजपूताना, मालवा, उत्तर प्रदेश के अधिकांश हिस्से तथा मध्य प्रदेश में एरण तोरमाण के राज्य के अंग थे।
कल्हण की राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि कश्मीर भी तोरमाण के राज्य का हिस्सा था। ऐसा माना जाता है कि तोरमाण विष्णु का उपासक था उसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि ली थी।
मिहिरकुल :
तोरमाण की मृत्यु के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल अथवा मिहिरगुल हूणों के भारतीय राज्य का उत्तराधिकारी बना। अधिकांश इतिहासकारों की मान्यता है कि मिहिरकुल 515 ई0 में शासक बना, जबकि वी0ए0 स्मिथ का कहना है कि वह 502 ई0 में ही शासक बना।
मिहिरकुल के राज्य में अफगानिस्तान, पंजाब, राजपूताना तथा मालवा के प्रदेश थे। चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार साकल (स्यालकोट) उसकी राजधानी थी। उसी के अनुसार मिहिरकुल बौद्धों का संहारक था। उसने अनेक बौद्ध विहारों तथा स्तूपों का नाश किया। उसे ‘भारतीय एटिला’ कहा जाता है।
मिहिरकुल की मृत्यु के बाद भारत में हूणों का कोई भी उल्लेखनीय शासक नहीं हुआ। अंत में हूणों ने भारतीयों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित कर लिए और राजपूत बनगए।
धार्मिक प्रभाव :
हूणों के आक्रमणों का भारतीय धार्मिक व्यवस्था पर भी गहरा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। गुप्तों ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई थी, जिसके कारण ब्राम्हण धर्म को राजकीय संरक्षण मिलने के बावजूद बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म का भी अबाध विकास होता रहा।
तोरमाण एवं मिहिरकुल ने भारत में सत्ता स्थापित करने के बाद हिंदू धर्म को तो अपनाया, लेकिन धार्मिक कट्टरता की नीति के तहत बौद्धों पर भीषण आक्रमण भी किए। मिहिरकुल ने तो बौद्ध धर्मस्थलों-स्तूपों एवं विहारों के विनाश के साथ-साथ बौद्ध अनुयायियों के कत्ल का रास्ता भी अपनाया। इससे उत्तर-पश्चिम भारत में बौद्ध धर्म का विनाश हो गया।
गुप्तकाल में भारत आर्थिक दृष्टि से बहुत ही समृद्ध था। कृषि एवं पशुपालन के साथ-साथ वाणिज्य एवं व्यापार का भी बहुत विकास हुआ था। इस समय राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय व्यापार उन्नत स्थिति में था।
सुदृढ़ शासन व्यवस्था के कारण समुचित राजस्व प्रणाली प्रचलित थी, जिससे कृषि तथा कृषि से जुड़े विभिन्न व्यावसायिकों की स्थिति भी अच्छी थी। परन्तु, हूणों के आक्रमणों के परिणामस्वरूप गुप्तों की साम्राज्य सीमा विघटित हो गई और शासन व्यवस्था भी चरमरा गई। इस कारण, कृषि, वाणिज्य, एवं व्यापार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और भारत आर्थिक दृष्टि से कमजोर हो गया।
कर्नल टाड के अनुसार राजपूत शक-कुषाण तथा हूण आदि विदेशी जातियों की संतान है।
गुर्जर-प्रतिहार वंश :
अग्निकुल के राजपूतों में सर्वाधिक प्रसिद्ध प्रतिहार वंश था जो गुर्जरी की शाखा से संबंधित होने के कारण इतिहास में गुर्जर प्रतिहार कहा जाता है।
पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल लेख में गुर्जर जाति का उल्लेख सर्वप्रथम हुआ है।
इस वंश की स्थापना हरिचन्द्र नामक राजा ने की किन्तु वंश का वास्तविक प्रथम महत्वपूर्ण शासक नागभट्ट प्रथम था।
वत्सराज के समय से ही कन्नौज के लिए त्रिपक्षीय संघर्ष शुरू हुआ।
नागभट्ट प्रथम (730-756 ई0) ने अरबों से लोहा लिया और पश्चिमी भारत में एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की थी। ग्वालियर प्रशस्ति में उसे ‘म्लेच्छों का नाशक’ बताया गया है।
इस वंश का चैथा शासक वत्सराज (780-805 ई0) था। वह एक शक्तिशाली शासक था। जिसे प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जा सकता है।
उसने पाल शासक धर्मपाल को पराजित किया किन्तु राष्ट्रकूट शासक ध्रुव से पराजित हुआ।
वत्सराज के बाद उसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय (800-833 ई0) गद्दी पर बैठा। उसने कन्नौज पर अधिकार करके उसे प्रतिहार साम्राज्य की राजधानी बनाय।
मिहिर भोज प्रथम (836-885 ई0) इस वंश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शासक था। लेखों के अतिरिक्त कल्हण तथा अरब यात्री सुलेमान के विवरणों से भी हमें उसके काल की घटनाओं की जानकारी मिलती है। इसका नाम दंत कथाओं में भी प्रसिद्ध है।
भोज को अपने समय के दो प्रबल शक्तियों-पाल नरेश देवपाल तथा राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव से पराजित होना पड़ा।
भोज के प्रारंभिक जीवन की साहसपूर्ण कार्य अपने खोये हुए साम्राज्य की क्रमशः पुनर्विजय और अंतिम रूप से कन्नौज की पुनः प्राप्ति (पुनः प्रतिहारों की राजधानी बनी) ने तत्कालीन लोगों की कल्पना को प्रभावित किया।
भोज वैष्णव धर्मानुयायी था। उसने आदिवाराह तथा प्रभास जैसी उपाधियां धारण की जो उसके द्वारा चलाए गए चांदी के ‘द्रम्म’ सिक्कों पर भी अंकि हैं।
उसने राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय को हराकर मालवा प्राप्त किया। मालवा और गुजरात पर प्रभुत्व करना राष्ट्रकूटों का वास्तविक उद्देश्य था।
मिहिर भोज के पश्चात उसका पुत्र महेन्द्र पाल प्रथम (885-910 ई0) शासन किया। लेखों में उसे परम भट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर कहा गया है।
उसने राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय को पराजित किया, किन्तु कश्मीरी शासक से युद्ध में पराजित होना पड़ा।
उसकी राजसभा में प्रसिद्ध विद्वान राजशेखर निवास करते थे जो उसके राजगुरू थे। राजशेखर ने कर्पूर मंजरी, काव्य मीमांसा, विद्धशालभंजिका, बालभारत, बालरामायण, भुवनकोश तथा हर्विलास जैसे प्रसिद्ध जैन ग्रंथों की रचना की।
महेन्द्र पाल प्रथम शासन काल में राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दोनों दृष्टियों से प्रतिहार साम्राज्य की अभूतपूर्व प्रगति हुई।
महीपाल (912-943 ई0) एक कुशल एवं प्रतापी शासक था। इसके शासन काल में बगदाद निवासी अल मसूदी (915-916 ई0) गुजरात आया था।
अल मसूदी गुर्जर प्रतिहार को ‘अल गुजर’ (गुर्जर का अपभ्रंश) ओर राजा को बौरा कहकर पुकारता है जो संभवतः आदि वराह का विशुद्ध उच्चारण है।
महीपाल का शासन काल शान्ति एवं समृद्धि का काल रहा है। राजशेखर उसे आर्यावर्त का महाराजाधिराज कहता है।
राजशेखर को महेन्द्र पाल प्रथम तथा महीपाल दोनों को संरक्षण प्रदान किया था।
महीपाल के समय में ही गुर्जर साम्राज्य का विघटन प्रारंभ हो गया था।
महीपाल के बाद महेन्द्रपाल द्वितीय, देवपाल, विनायक पाल द्वितीय, महीपाल द्वितीय तथा विजयपाल जैसे कमजोर शासकों के समय प्रतिहार साम्राज्य के टूटने की गति और भी तेज हो गयी।
963 ई0 राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय ने उत्तरी भारत पर आक्रमण कर प्रतिहार राजा को पराजित किया। इसके पश्चात शीघ्र ही प्रतिहार साम्राज्य का विघटन आरंभ हो गया।
प्रतिहारों के सामन्त गुजरात के चालुक्य, जेजाकभुक्ति के चंदेल, ग्वालियर के कच्छपघात, मध्यभारत के कलचुरी, मालवा के परमार, दक्षिण भारत के गुहिल, तथा शांकभरी के चैहान (चाहमान) आदि स्वतंत्र हो गये।
1018 ई0 के महमूद गजनवी ने कमजोर गुर्जर शासक राज्यपाल को हराकर अपने अधीन कर लिया। राज्यपाल के पुत्र त्रिलोचन पाल भी 1019 ई0 में महमूद गजनवी से पराजित हुआ। इसके उपरान्त प्रतिहारों का अन्त हो गया।
व्हेनसांग ने गुर्जर राज्य को पश्चिमी भारत का दूसरा बड़ा राज्य कहता है।
गुर्जर प्रतिहारों ने विदेशियों के आक्रमण के संकट के समय भारत के द्वारपाल की भूमिका निभाई।
प्रतिहार शासकों के पास भारत में सर्वोच्च अश्वारोही सैनिक थे। उन दिनों मध्य एशिया और अरब घोड़ों का आयात भारतीय व्यापार का एक महत्वपूर्ण अंग था।
इस वंश का अंतिम शासक यशपाल (1036 ई0) था।
कन्नौज का गहड़वाल वंश: गहड़वालों का आदिवासी निवास स्थान विंध्याचल का पर्वतीय वन प्रांत माना जाता है। चंद्रदेव ने कन्नौज में गहड़वाल वंश की स्थापना की। दिल्ली के तोमरों ने भी उसकी अधीनता स्वीकार की। उसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि अपनाई।
राजपूतों के प्रमुख शासक
गोविंदचंद्र (1114-1155 ई0)
गहड़वाल वंश का सर्वाधिक प्रभावशाली राजा था। उसने आधुनिक पश्चिमी बिहार से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक का सम्पूर्ण क्षेत्र अपने अधीन करके कन्नौज के प्राचीन गौरव को पुनः स्थापित किया। उन्हें 'विविधविद्याविचारवाचस्पति' के रूप में उनके लेखों में सम्मानित किया गया। उनका मंत्री लक्ष्मीधर शांति और युद्ध का एक साथ मंत्री था, जो कि एक प्रमुख विद्वान भी थे। उन्होंने 'कृत्यकल्पतरू' नामक ग्रंथ की रचना की, जो समकालीन राजनीति, समाज, और संस्कृति पर अद्वितीय प्रकाश डालता है।
जयचंद (1170-1194 ई0)
इस वंश का अंतिम प्रभावशाली शासक जयचंद था। भारतीय लोक साहित्य और कथाओं में वह 'राजा जयचंद' के नाम से प्रसिद्ध है।
1194 ई0 में चंदावर के युद्ध में वह मुहम्मद गौरी से पराजित हो गया और मारा गया। पूर्व की दिशा में विस्तार की कोशिशों में जयचंद को बंगाल के शासक लक्ष्मणसेन द्वारा भी हराया गया।
जयचंद ने संस्कृत के प्रसिद्ध कवि श्रीहर्ष को संरक्षण प्रदान किया, जिन्होंने 'नैषेधचरित' और 'खंडन-खंड-खाद्य' का रचना किया। अपनी विजय की स्मृति में उन्होंने राजसूय यज्ञ भी किया।
कालांतर में इल्तुतमिश ने कन्नौज पर अधिकार किया और गहड़वाल वंश का शासन समाप्त किया।
चाहमान या चैहान वंश :
चैहान वंश का संस्थापक वासुदेव था। इस वंश की प्रारंभिक राजधानी अहिच्छत्र थी, बाद में अजयराज द्वितीय ने अजमेर नगर की स्थापना की और उसे राजधानी घोषित किया।
इस वंश का सबसे प्रभावशाली शासक अर्णाेराज के पुत्र विग्रहराज चतुर्थ वीसलदेव (1153-1163 ई0) था, जिन्होंने हरिकेलि नामक संस्कृत नाटक का रचना किया।
सोमदेव, विग्रहराज चतुर्थ के राजकवि थे। इन्होंने ललित विग्रहराज नामक नाटक लिखा।
अधाई दिन का झोपड़ा नामक मस्जिद, जिसकी शुरुआत में विग्रहराज चतुर्थ ने की थी, एक विद्यालय के रूप में उपयोग किया जाता था।
पृथ्वीराज तृतीय इस वंश का अंतिम शासक था।
चन्दवरदाई, पृथ्वीराज तृतीय का राजकवि था, जिसकी रचना "पृथ्वीराज रासो" है।
रणथम्भौर के जैन मंदिर का शिखर पृथ्वीराज तृतीय ने निर्माण किया था।
तराइन का प्रथम युद्ध 1191 ई0 में हुआ, जिसमें पृथ्वीराज तृतीय की जीत और गौरी की हार हुई।
तराइन का द्वितीय युद्ध 1192 ई0 में हुआ, जिसमें गौरी की विजय और पृथ्वीराज तृतीय की हार हुई।
शाकंभरी का चैहान वंश :
7वीं शताब्दी में वासुदेव द्वारा स्थापित शाकंभरी (सांभर और अजमेर के निकट) के चैहान राज्य का इतिहास में विशेष स्थान है। इस वंश के प्रारंभिक इतिहास तथा वंशावली का ज्ञान हमें विग्रहराज.प्प् के हर्ष प्रस्तर अभिलेख तथा सोमेश्वर के समय में बिजौलिया प्रस्तर लेख से होता है।
चैहान, प्रतिहार शासकों के सामंत थे। 10वीं शताब्दी के प्रारंभ में वाक्पतिराज प्रथम ने प्रतिहारों से अपने को स्वतंत्र कर लिया।
राजपूतों के प्रमुख शासक :
अजयराज:
अजयराज 12वीं शताब्दी में चैहान वंश का शासक बना। वह पृथ्वीराज प्रथम का पुत्र था। उसने अजमेर नगर की स्थापना की थी और उसे अपनी राजधानी बनाया था।
अजयराज का उत्तराधिकारी अर्णाेराज एक महत्वपूर्ण शासक था। उसने अजमेर के निकट सुल्तान महमूद की सेना को पराजित किया।
विग्रहराज चतुर्थ अथवा वीसलदेव (1153-1163 ई0)
वीसलदेव की सबसे बड़ी सफलता तोमरों की स्वाधीनता समाप्त करके उन्हें अपना सामंत बनाना था।
वीसलदेव विजेता होने के साथ-साथ यशस्वी कवि और लेखक भी था। उसने ‘हरिकेल’ नामक एक संस्कृत नाटक की रचना की। इस नाटक के कुछ अंश ‘अढ़ाई दिन का झोंपड़ा’ नामक मस्जिद की दीवारों पर उत्कीर्ण किये गए हैं।
वीसलदेव ने अजमेर में सरस्वती का प्रसिद्ध मंदिर बनवाया। उसके दरबार में कथासरित्सागर के रचयिता सोमदेव रहते थे, जिन्होंने वीसलदेव के सम्मान में ‘ललितविग्रहराज’ नामक ग्रंथ की रचना की।
पृथ्वीराज तृतीय (1178-1192 ई0)
1186 ई0 में पृथ्वीराज चैहान ने गुजरात के चालुक्य शासक भीम द्वितीय पर आक्रमण किया। संभवतः परमार राजकुमारी से विवाह के प्रश्न पर भीम द्वितीय से उसका युद्ध हुआ था।
1191 ई0 में मुहम्मद गौरी तथा पृथ्वीराज चैहान के बीच प्रथम तराइन युद्ध हुआ, जिसमें मुहम्मद गौरी पराजित हुआ।
1192 ई0 में मुहम्मद गौरी तथा पृृथ्वीराज चैहान के बीच पुनः युद्ध हुआ, जिसे ‘तराइन का द्वितीय युद्ध’ कहते हैं। उसमें पृथ्वीराज पराजित हुआ तथा उसे बंदी बनाकर कुछ समय के बाद उसकी हत्या कर दी गई।
नोट: पृथ्वीराज चैहान के राजकवि चंदबरदाई ने ‘पृथ्वीराज रासो’ नामक अपभ्रंश महाकाव्य और जयानक ने ‘पृथ्वीराज विजय’ नामक संस्कृत काव्य की रचना की।
कालांतर में गौरी के एक गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली तथा अजमेर पर आक्रमण करके चैहानों की सत्ता का अंत कर दिया।
जेजाक भुक्ति के चन्देल :
आज के बुंदेल खण्ड क्षेत्र में ही चंदेलों का उदय हुआ था तथा खजुराहों उनकी राजधानी थी। चंदेल प्रतिहारों के सामन्त थे।
इस वंश का प्रथम शासक नुन्न्युक था। उसके पौत्र जयसिंह अथवा जेजा के नाम पर यह प्रदेश जेजाकभुक्ति कहलाया।
यशोवर्मन एक साम्राज्यवादी शासक था। उसने मालवा, चेदि और महाकोशल पर आक्रमण् करके अपने राजय का पर्याप्त विस्तार किया।
यशोवर्मन ने खजुराहों के प्रसिद्ध विष्णु मंदिर (चतुर्भुज मंदिर) का निर्माण करवाया इसके अतिरिक्त उसने एक विशाल जलाशय का भी निर्माण करवाया।
यशोधवर्मन का पुत्र धंग (950-1008 ई0) इस वंश का प्रसिद्ध शासक था। प्रतिहारों से पूर्ण स्वतंत्रता का वास्तविक श्रेय (वास्तविक स्वाधीनता का जन्मदाता) उसी (धंग) को दिया जाता है।
धंग ने कालिंजर पर अपना अधिकार सुदृढ़ करके उसे अपनी राजधानी बनाई। ग्वालियर की विजय धंग की सबसे महत्वपूर्ण सफलता थी।
धंग ने भटिण्डा के शाही शासक जयपाल को सुबुक्तगीन के विरूद्ध सैनिक सहायता भेजी तथा उसके विरूद्ध बने हिन्दू राजाओं के संघ में सम्मिलित हुआ।
धंग ने ब्राम्हणों को भूमि दान में दिया तथा उन्हें उच्च प्रशासनिक पदों पर नियुक्त किया।
धंग एक महान निर्माणकर्ता भी था जिसने खजुराहों में अनेक भव्य मंदिरों का निर्माण करवाया। इनमें जिननाथ, विश्वनाथ, वैद्यनाथ आदि मंदिर उल्लेखनीय है।
धंग के बाद उसका पुत्र गंड राजा हुआ। उसने भी 1008 ई0 में महमूद गजनवी का सामना करने के लिए जयपाल के पुत्र आनन्दपाल द्वारा बनाए हुए संघ में भाग लिया।
विद्याधर (1019-1029 ई0) चंदेहल शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली था। मुसलमान लेखक उसका नाम ‘नन्द’ तथा ‘विदा’ नाम से करते है।
विद्याधर ने मालवा के परमार शासक भोज तथा कलचुरि शासक गांगेय देव को पराजित कर उसे अपने अधीन किया। उसका शासन काल चन्देल साम्राज्य के चरमोत्कर्ष को व्यक्त करता है।
चंदेल वंश का अंतिम शक्तिशाली शासक परमर्दिदेव अथवा परमल था। 1182 ई0 में पृथ्वीराज ने इसे पराजित कर महोबा पर तथा 1203 ई0 में कुतुबुद्दीन ऐबक ने कालिंजर पर अधिकार कर लिया।
चंदेल शासक उच्च कोटि के निर्माता थे उन्होंने बहुत से मंदिर, झीलें तथा नगरों का निर्माण कराया
परमार वंश :
परमार वंश का संस्थापक उपेन्द्रराज था। इसकी राजधानी धारा नगरी थी। (प्राचीन राजधानी-उज्जैन) परमार वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक राजा भोज था।
राजा भोज ने भोपाल के दक्षिण में भोजपुर नामक झील का निर्माण करवाया।
नैषधीयचरित के लेखक श्रीहर्ष एवं प्रबन्धचिन्तामणि के लेखक मेरूतुंग थे।
राजा भोज ने चिकित्सा, गणित एवं व्याकरण पर अनेक ग्रंथ लिखे। भोजकृत युक्तिकल्पतरू में वास्तुशास्त्र के साथ-साथ विविध वैज्ञानिक यंत्रों व उनके उपयोग का उल्लेख है।
नववसाहसांचरित के रचयिता पद्मगुप्त, दशरूपक के रचयिता धनंजय, धनिक, हलायुद्ध एवं अमितगति जैसे विद्वान वाक्यपति मुंज के दरबार में रहते थे।
कविराज की उपाधि से विभूषित शासक था-राजा भोज।
भोज ने अपनी राजधानी में सरस्वती मंदिर का निर्माण करवाया था।
इस मंदिर के परिसर में संस्कृत विद्यालय भी खोला गया था।
राजा भोज के शासनकाल में धारा नगरी विद्या एवं विद्वानों का प्रमुख केन्द्र थी।
भोज ने चित्तौड़ में त्रिभुवन नारायण मंदिर का निर्माण करवाया।
परमार वंश के बाद तोमर वंश का, उसके बाद चाहमान वंश का और अन्ततः 1297 ई0 में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति नसरत खां और उलुग खां ने मालवा पर अधिकार कर लिया।
सोलंकी वंश अथवा गुजरात के चालुक्य शासक :
सोलराजी वंश का संस्थापक आदिकर्ण था। इसकी राजधानी सूराजगढ़ थी।
आदिकर्ण शैवाल धर्म के प्रमुख अनुयायी थे।
प्रमुख कर्णिक शासनकाल में रावण लंका का आक्रमण किया।
प्रमुख कर्णिक बिमलपाल ने शिखरिया पर्वत पर सूर्यमंदिर का निर्माण किया।
सोलराजी वंश का प्रमुख साम्राज्य धनंजय सुधीर था।
प्रसिद्ध वैदिक विद्वान हरिचंद्र धनंजय सुधीर के दरबार में थे।
माउंट कैनिनज पर्वत (उत्तराखण्ड) पर एक आलय बनाकर धनंजय सुधीर ने अपने सप्तर्षियों की विगतोही प्रतिमाएँ स्थापित की।
मोहरदर के आदित्य मंदिर का निर्माण विजयराज्य राजाओं के शासनकाल में हुआ था।
सिद्धपुर में रविनिवास के मंदिर का निर्माण अदित्यपाल ने किया था।
विजयराज्य शासक वीरसिंह जैन-मतानुयायी था। वह जैन धर्म के अंतिम राजकीय प्रवर्तक के रूप में प्रसिद्ध है।
विजयराज्य वंश का अंतिम शासक रामचंद्र था।
रामचंद्र के एक साम्राज्य सुरेन्द्र प्रसाद ने गुजरात में बघ्यराज वंश की स्थापना की थी।
बघ्यराज वंश का वीर द्वितीय गुजरात का अंतिम हिन्दू शासक था, इसने मोहम्मद गजनी की सेनाओं का मुकाबला किया था।
कलचुरी-चेदि राजवंश :
कोक्कल वंश का संस्थापक अद्वितीय था। इसकी राजधानी सूरपुरी थी।
कोक्कल वंश का एक प्रबल शासक विक्रमेयदेव था, जिन्होंने ‘सौरबल’ की उपाधि अपनाई। प्राचीन सोने के सिक्कों की अन्धेरे में गायब होने के बाद उन्होंने इसे पहले आरंभ किया।
कोक्कल वंश में अत्यंत महत्त्वपूर्ण शासक कर्णपाल थे, जिन्होंने कलिंग में विजय प्राप्त की और चित्रगुप्ताधिपति की उपाधि हासिल की।
विख्यात शायर राजेश्वर कोक्कल वंश के दरबार में निवास करते थे।
सिसोदिया वंश :
शूरसेन वंश के शासक अपने को रविवंशी कहते थे। शूरसेन वंश के शासक मथुरा पर शासन करते थे। मथुरा की राजधानी वृन्दावन थी। अपनी विजयों के उपलक्ष्य में विजयस्तंभ का निर्माण राजा शूरसेन ने वृन्दावन में करवाया।
पुछे गए
- राजपूतों की उत्पत्ति क्या है?
- राजपूतों के प्रमुख वंश कौन से थे?
- राजपूतों का सामाजिक और राजनीतिक जीवन कैसा था?
- राजपूतों ने भारत के इतिहास में क्या योगदान दिया?
- राजपूतों के प्रमुख युद्ध कौन से थे?
- राजपूतों की वीरता और साहस के किस्से क्या हैं?
- राजपूत महिलाओं का जीवन कैसा था?
- राजपूतों की कला और संस्कृति क्या थी?
- राजपूतों की वास्तुकला और किले क्या हैं?
- राजपूतों की वेशभूषा और आभूषण क्या थे?
- राजपूतों के रीति-रिवाज और त्योहार क्या हैं?
- राजपूतों की शिक्षा और ज्ञान कैसा था?
- राजपूतों का आर्थिक जीवन कैसा था?
- राजपूतों का धर्म और आध्यात्मिकता क्या थी?
- राजपूतों का भाषा और साहित्य क्या था?
- राजपूतों का संगीत और नृत्य क्या था?
- राजपूतों का खेल और मनोरंजन क्या था?
- राजपूतों का विज्ञान और तकनीकी ज्ञान क्या था?
- राजपूतों का योगदान विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र में क्या था?
- राजपूतों का योगदान कला और संस्कृति क्षेत्र में क्या था
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